Monday 21 January 2019

रात तकिया भिगाती रही एक लड़की 
कमरे में रौशनी लाती वो खिड़की 
जिसके शीशे के पार कोई देख न सका 
दर्द और कश्मक़श के लम्हातों को 
वो खुद भी न समझ सकी अपने जज़्बातों को
एक बेबसी थी एक डर था और कहीं एक कोने में प्यार
एक दूजे के इल्ज़ामों तहत सब आप ही थे गिरफ़्तार
फिर वो तो ठहरी पागल
उसमें था ही नहीं कोई गुण कोई हुनर
कैसे सुलझाती वो ज़िन्दगी की उलझने
बस यूँ ही सिर से पैर तक उनमें बाँध रखा था खुद को
सोचती थी कोई साथ लाएगा मुस्कुराहटों की कैंचियाँ
जिनसे खुलेंगी ये सारी गिरहें
आज़ाद होंगे सब क़ैदी दिल के
और फिर उस खाली दिल को सजाएगी वो ख़्वाहिशों के चिराग़ से.....
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उस पागल का पागलपन भी अब कैदी है 'दिल की सलाखों में'!

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